सच्चा प्रेम
प्रेम न खेतो उपजे प्रेम न हाट बिकाय। रंक हो या राजा शीश झुका ले जाय।
प्रेम धर्म का दुसरा नाम है। सच्चा प्रेम अमुल्य है। उसमे स्वार्थ नही होता। वह बदलता नही। वह शुद्ध और निर्मल होता है। वह सदैव बढ़ता है, कभी घटता नही। वह सहज होता है। प्रेम ऐसा ही होता है। सहज- निस्वार्थ- अटल और पुर्ण।
प्रेम ही धर्म है
प्रेम सत्य के आवरण से ढ़का होता है। सत्य से जुड़ा हुआ व्यक्ति सदैव युवा और तेजस्वी रहता है। सत्य का उपासक कभी बुढ़ा नही होता। सत्य वाणी तक ही सिमित नही होना चाहिए, वह कर्मो से भी व्यक्त होना चाहिए। प्रेम, घृणा एवं द्वेष की शक्तियों के समक्ष हार नही मानता, चाहे वह कितना भी शक्तिशाली क्यों न हो। प्रेम सदैव उन पर हावी रहता है।
प्रेम वो चीज़ है जो इन्सान को कभी मुर्झाने नही देता। और नफरत वो चीज है जो इन्सान को कभी खिलने नही देता ।
प्रेम ही सत्य है
एक बार महात्मा बुद्ध जब यात्रा पर जा रहे थे तो एक राक्षसी हाथ मे तलवार लेकर प्रकट हुई और बोली, अरे बुद्ध, आज तुम्हारे प्रेम को मेरी घृणा के समक्ष झुकना ही पड़ेगा। आज तुम्हारे जीवन का अंतिम दिन है।
बुद्ध ने मुस्कुराते हुए उत्तर दिया, मै घृणा अथवा द्वेष के आगे नतमस्तक नही होउँगा। मै निंदा, प्रशंसा, उपहास किसी से भी प्रभावित नही होता। तुम मुझसे इतनी घृणा करती हो पर मै तो तुमसे से भी प्रेम करता हुँ।
महात्मा बुद्ध के वचन सुनकर राक्षसी एक फरिश्ते मे बदल गई और अंतरध्यान हो गई ।
दरअसल , जो लोग दुसरों से द्वेष करते है, अंत मे घृणा उन्हें नष्ट कर देती है। घृणा से भरे हुए लोगो को एक दिन घृणा ले डुबते है।
प्रेम पुजा है
न जीत है न हार है ये तो मन का परिणाम है।
मान लो तो हार है और ठान लो जीत है।
अच्छाई और बुराई दोनो हमारे अन्दर है, जिसका अधिक प्रयोग करेंगे, वो उतना ही उभरती और निखरती जाएगी।
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