योगशास्त्र मानव के लिए अमृत है।
योग योगा सब कोई करे, योगा बिन रहे ना कोई | जीवन को सच मे जीना है तो, योगा करे सब कोई |
योगशास्त्र यह निष्कर्ष निकालता है कि इस शरीर के भीतर ही अमृत है और इसे पाने के लिय बस आवश्यकता है अपनी चेतना को सहस्रार चक्र मे स्थिर करने की।
जो जन्म लेता है उसकी मृत्यु निश्चित है। लेकिन मृत्यु के विषय मे सोचकर सभी मनुष्य कांप जाते है। इसलिए मनुष्य हमेशा मृत्यु से बचने का उपाय खोज लेने की इच्छा रखता है।
वेदों और पुराणों मे एक ऐसे तरल पदार्थ की कल्पना की गई है, जो उसे मृत होने से बचा सकती है। इसे अमृत कहा गया है। पुराणों मे यह भी कथा है कि इस अमृत से भरा एक घड़ा समुद्र मंथन से निकला था। इस कथा और विचार के साथ यह धारणा भी जुड़ा है कि इस अमृत नामक पेय के सेवन से पीने वाला अमर हो जाता है। उपनिषद और पुराणों मे इस अमृत का अनेक बार वर्णन किया गया है और इसके सेवन का अधिकारी केवल देवताओं को माना गया है। पुराणों के अनुसार समुद्र मंथन से निकले अमृत का पान देवताओं ने ही किया। इसिलिए वे अमर हो गए , देवताओं के साथ राहु और केतु को भी इसे पीने का अवसर मिल गया, इसिलि वे भी अमर होकर नौ ग्रहों मे शामिल होकर पूजनीय हो गये।
पुराणों मे इस अमृत को सिर्फ देवताओं के लिए उपलब्ध अवश्य बताया गया है, लेकिन क्या इसको मनुष्य भी प्राप्त कर सकता है या कभी उसने पाने का यत्न किया ? यदि हम अपने योगशास्त्रों पर दृष्टि डालें तो वहां भी अमृत का वर्णन अनेकों स्थानों पर मिलता है। लेकिन यह अमृत कोई बाहर से पीने वाला पदार्थ नही है। योगशास्त्र मे वर्णित अमृत की अवधारणा बिल्कुल अलग है। इस साहित्य मे ऐसा जिक्र मिलता कि हमारे शरीर मे कुल सात चक्र है। सातवाँ चक्र सहस्रार चक्र है। जिसको सत्य लोक भी कहा जाता है। यह हमारे सिर मे कपाल रंध्र मे स्थित होता है। वहाँ से निरंतर एक स्राव होता रहता है। जिसे अमृत स्राव कहा गया है। सामान्यतया यह स्रावित रस पेट मे जाकर भस्म हो जाता है। लेकिन जब साधक योग की कुछ मुद्राओं, जैसे- खेचरी, विपरीतकरणी, जलंधरबंध आदि मुद्रा मे बैठता है, तो वह सहस्रार चक्र से झरते हुए अमृत रस का पान कर सकता है।
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जो योग करेगा वह निरोग रहेगा |
योगा को जीवन का हिस्सा बनाए।
ऐसा मानता है कि जब तक साधक उस रस का पान करता है, उसकी मृत्यु नही हो सकती। इसी कारण हमारे ऋषि-मुनियों की आयु सैकड़ों - हजारों वर्षों तक मानी जाती है।योगशास्त्र के अनुसार यदि कोई साधक खेचरी मु्द्रा लगाकर समाधि की अवस्था मे चला जाता है, तो उस अवस्था मे उसके शरीर की सभी ऐंद्रिक क्रियाएँ रुक जाती है। यहाँ तक की उसके मन मस्तिष्क मे कोई विचार या चिंतन प्रवाहित नही होता। अतः जितना देर साधक समाधि की अवस्था मे रहता है, उतने समय तक वह उस अमृत का पान करता रहता है और वह काल उसके आयु मे नही जुड़ता। उसका क्षरण नही होता। इस तरह कि गई समाधि उसकी आयु को बढ़ा देती है। इस विश्लेषण के आधार पर योगशास्त्र यह निष्कर्ष निकालता है कि इस शरीर के भीतर ही अमृत स्थित है और इसे पाने के लिए बस आवश्यकता है अपने चेतना को सहस्रार चक्र मे स्थिर करने की।
पौराणिक कथाओं की जो बाद मे व्याख्या की गई है, उसके अनुसार सोमरस को भी अमृत का दर्जा दिया गया है। इसके अनुसार देवतागण सोमरस का पान करके अन्दर की अवस्था मे चले जाते थे और यह रस उनके भीतर के सारे विकारों का नाश कर मन को शांति व आनंद से भर देता था। संभवतः चिंता और क्लेश जैसे भावों को शिथिल करने और मन को आनंद देने के इसके गुण के कारण ही इसे अमृत तुल्य कहा गया है, जो बाद मे इसे अमृत कहा जाने लगा। लेकिन वास्तव मे सोमरस अमृत नही है। सोमरस तो एक पेय पदार्थ है जो मन को शान्त करने मे मदद करता था। सोमरस विभिन्न फुलों व फलों से प्राप्त एक प्रकार की दिव्य औषधि था, जो थकान को दुर कर हल्कापन देता था।
अतः अमृत की इच्छा है तो इसके लिए योग साधना एक उपाय है। मृत्यु तो निश्चित है, लेकिन आयु को बढ़ाया जा सकता है। योगा सभी मनुष्यों को करना चाहिए | जीवन की पूर्णता के लिए योगा जरूरी है |
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Very nice
जवाब देंहटाएंHealth is wealth
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