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रविवार, 26 जनवरी 2020

पीर पराई जाने रे। pir parai Jane re

जो पीर पराई जाने वही मानवता है

जीवन की सच्चाई,jivan ki sachai,जो पीर पराई जाने वही मानवता है,वैष्णव जन तो तेने कहिए
पीर पराई जाने रे 

हमें  जो  मिलता  है  उससे  हम  जीवन  चलाते  हैं, पर  हम  जो  देते  हैं  उससे  हम  जीवन  बनाते  हैं।

सुख का व्यापार तो सभी करते हैं, पर दुख का व्यपार करने के हम अभ्यस्त नही हैं, आदि नही है, जिस दिन हम दुख का आदान प्रदान करना सीख जायेंगे, संसार का संघर्ष मिट जाएगा।



दुख मे सुमिरन सब करे सुख मे करे न कोई। जो सुख मे सुमिरन करे तो दुख काहे को होई।

संसार मे कितने लोग है, जो दुसरों के दुख को‌ महसूस कर पाते है ? कबीर दास ने कहा भी है, कबीरा सोई पीर है, जो जाने पर पीर। संसार मे कितने लोग है जो दुसरों के सुख-दुख को महसूस कर पाते हैं ? पर जो सचमुच मे महसूस करते हैं, वो पीर बन जाते है। किंतु पीड़ा जान लेना कोई आसान बात नही है।
जब निर्मल ह्रदय दुसरों के दुख से द्रवित हो उठता है, उस दुख को दुर करने के लिए तत्पर हो जाता है, उस दुख को दुर करने का उपाय ढूंढने लगता है। तब वह उन योगी महर्षियों से भी उँचा हो जाता है। सम्राट अशोक ने जब पर पीरा अनुभव की तो वह महान बन गया, पीर बन गया। कलिंग विजय ने उसे सम्राट से संत बना दिया।

दुसरों के दुख को समझने वाला


दुसरों के दुख को समझने वाला, दुसरों के दुखों को दुर करने की चेष्टा करने वाला कोई भी व्यक्ति संत पीर बन सकता है। बशर्ते उसके पास निर्मल ह्रदय हो,  जो स्वदुख और परदुख मे अंतर करे। सब प्राणियों की आत्मा उसे  अपनी ही आत्मा का साक्षात्कार प्रतीत हो।
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वैष्णव जन तो तेने कहिए 

सिद्धार्थ , व्यक्तिगत दुख की भावना से उपर उठकर, पर दुख से कातर होकर भगवान बुद्ध बन गए। भगवान बुद्ध की यही भावना बौद्ध धर्म मे हीनयान और महायान के रुप मे साकार हुई।  भगवान बुद्ध का यही आदर्श था, वे पीरों की भावना प्रसंग मे प्रथम पद पाने के अधिकारी है।

संसार मे आए मनुष्यों की एकमात्र समस्या है दुख । ज्ञान या अज्ञानवश वह जो कुछ सुकर्म या कुकर्म करता है, वह दुख की निवृत्ति के लिए ही करता है। और जो इस दुख को दुर करने के लिए प्रयत्नशील होता है, वंदनीय बन जाता है, संत बन जाता है, पीर बन जाता है। पीर के लिए कुल, जाती, धर्म, स्थान कुछ भी बाधक नही, किसी भी प्रकार की शिक्षा- दिक्षा इस पद पर पहुंचने मे असमर्थ है। पर पीरा का आकर्षण उसे विरक्त पुरुष बना देता है, पीर यानी संत बना देता है।

हम अपने दुख से दुखी होते है


हम अपने दुख से दुखी होते है, अपने आत्मीयजन के दुख मे दुखी होते है, किसी महान हस्ती के निधन पर दुखी होते है, तो हम पीर या संत नही बन जाते, पीर बनने के लिए व्यक्तिगत दुख को विश्वव्यापी बनाना आवश्यक है। पीर के लिए परिचित अपरिचित का कोई प्रश्न नही, पीर सारे संसार को कुटुम्बता मानता है।

दुख ह्रदय मे जन्म लेता है और ह्रदय ही ह्रदय की भाषा समझता है। दुख का व्यापार बड़ा सुन्दर व्यापार है। सुख का व्यापार तो सभी करते है, पर दुख का व्यापार करने के हम अभ्यस्त नही है। आदि नही है। जिस दिन हम दुख का आदान-प्रदान करना सिख जाएंगे, संसार का संघर्ष मिट जाएगा।

अपने दुख मे रोने वालों मुस्कुराना सिख लो, दुसरों के दुख दर्द मे आंसु बहाना सिख लो।
जो खिलाने मे मजा है आप खाने मे नही, जिंदगी मे तुम किसी के काम आना सिख लो।

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